लेखनी पकहां गए वो भाव अमर उद्घोषों की
आज मेरी कविताएं मुझसे पूछ रही...
कहां गए वो भाव अमर उद्घोषों की।
जहां व्यथाएं स्वर्णिम अक्षर होती थी...
जहां चेतना व्योमी उर्ध्वर होती थी...
जहां अंधेरों को मैंने एकांत कहा।
जहां तूफानों से रहने को शांत कहा!
जहां सूर्य छपता था क्षितिज के दामन में
जहां रश्मियां ही थी रानी मेघों की।
आज मेरी कविताएं मुझसे पूछ रही...
कहां गए वो भाव अमर उद्घोषों की।
आंसू में उत्पल्लिवत भाव नहीं होता...
अगर कुसुम स्पर्शी घाव नहीं होता..
कभी निराशा छंदों को न छू पाती।
अगर मेरे आंखों में नहीं लहू आती।
जहां अमर शब्दों की गरिमा उत्तम हो।
वहां गलत है बात व्यथा के वेगों की।
आज मेरी कविताएं मुझसे पूछ रही...
कहां गए वो भाव अमर उद्घोषों की।
जहां प्रेम उपवास के जैसे होता था
जहां फासले का 'फ' सुन दिल रोता था।
जहां मयस्सर थी खुशियां हर इक दिल में
जहां साथ ही लोग खड़े थे मुश्किल में
जहां जगनुओं को जलने से ठंडक थी...
वहां तितलियां बन गई मौत पंतगों की....
आज मेरी कविताएं मुझसे पूछ रही...
कहां गए वो भाव अमर उद्घोषों की।
दीपक झा
Gunjan Kamal
05-Oct-2022 07:38 PM
शानदार प्रस्तुति 👌🙏🏻
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Swati chourasia
04-Oct-2022 08:46 AM
वाह बहुत ही बेहतरीन रचना 👌👌 आपका जवाब नहीं बहुत अच्छा लिखते है आप 👌👌👌👌
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Shashank मणि Yadava 'सनम'
04-Oct-2022 08:10 AM
जुगनुओं होना चाहिए sir
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